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ऐ साक़ी-ए-मह-वश ग़म-ए-दौराँ नहीं उठता


ऐ साक़ी-ए-मह-वश ग़म-ए-दौराँ नहीं उठता

दरवेश के हुजरे से ये मेहमाँ नहीं उठता


कहते थे कि है बार-ए-दो-आलम भी कोई चीज़

देखा है तो अब बार-ए-गरेबाँ नहीं उठता


क्या मेरे सफ़ीने ही की दरिया को खटक थी

क्या बात है अब क्यूँ कोई तूफ़ाँ नहीं उठता


किस नक़्श-ए-क़दम पर है झुका रोज़-ए-अज़ल से

किस वहम में सज्दे से बयाबाँ नहीं उठता


बे-हिम्मत-ए-मर्दाना मसाफ़त नहीं कटती

बे-अज़्म-ए-मुसम्मम क़दम आसाँ नहीं उठता


यूँ उठती हैं अंगड़ाई को वो मरमरीं बाँहें

जैसे कि 'अदम' तख़्त-ए-सुलैमाँ नहीं उठता


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